मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

सोर संदेसा


ताना मारे भौजी, गारी देथे सा​स ननंदिया।
होगे जियलेवा राम जीनगी सुरजतिया।

मइके छुटे घर बन अंगना, येमा कोन के दोस।
माया छांया जिय नई लागे मन रहीगे मसोस।
कइसे के मय का कर डारव,
कोन जानय​ दिल के बतिया।
होगे जियलेवा राम जीनगी सुरजतिया।

कोन बैरी मुड़ मोहनी डारे, पिया बसे परदेस।
कोन सौत सुर पैरी हारे, करिया बर कलगी केस।
परवस्ती रहवासा भइगे।
उही दिन उही रतिया।
होगे जियलेवा राम जीनगी सुरजतिया। 

ननपन मां भांवर गिंजरे, संगे गवना डोली।
संग सहेली सरबस छुटगे, छुटे ठोली हमजोली।
खलक उजर गांव भर देखे।
बिन बात बाजा ब​रतिया।
होगे जियलेवा राम जीनगी सुरजतिया।

आंखी कोर काजर बोहागे, अइलागे फुल गजरा।
रोई रोई सुरता सेठरागे, सुन्ना लुगा अचरा।
भांय भांय लगे पारा परछी।
परछो लेथे परजतिया।
होगे जियलेवा राम जीनगी सुरजतिया।

सोर संदेस सुध बिसराये, अरझे मन मतउना।

साज सवांगा नोहर भइगे, लोखन मित मितउना।
आरो लेवत बितगे जिनगी,
लिख लिख हारेंव पतियो।
होगे जिय लेवा राम जिनगी सुरजतिया।

गीतकार
एमन दास मानिकपुरी 
औंरी, भिलाई 3, दुरूग।
मो. 7828953811

चित्र साभार: श्री फागुराम यादव जी

रविवार, 13 अप्रैल 2014

फिर भी,,



मेरे पास कुछ नई है,

फिर भी,
मेरे पास बहुत कुछ है ,
कुछ स्मृतियाँ ही ,
मेरे लिए बहुत कुछ है,

गर्मी की छुट्टी है,
जलती दुपहरी है 
जब मै घर के सामने की,
नीम के  झाड़ के निचे  खेलता रहता,
कुछ दोस्तों के साथ,
फुर्फुन्दी के पीछे भागते रहता,

पतंग के लिए पैसे नहीं तो क्या,
किसी पुराने अख़बार में ,
बांस की डंडी लगा के ,
रस्सी के सहारे बांध देता ,
पतंग आसमान तक नई जाता तो क्या,
मै रस्सी पकड़ के सड़क किनारे दौड़ लगाता ,
मेरे सर के बराबर ही सही ,
पतंग उड़ता तो था ,

खाली सीसी और घर के रद्दी ,
कबाड़ी को बेच आता ,
तो कुछ पैसे माँ मुझे भी दे देती ,
इसे स्कुल के दिनों के लिए,
सम्हाल के रखने के लिए,
वापस माँ को दे देता,

तालाब में भैसों के पीठ पर से,
 कूदने का अपना अलग ही मजा था,
 बसते में रखे टूटी पेंसिल से दुनिया लिखने की ख्वाब देखना ,
सरकती पेंट को सँभालने में स्कूल का सारा समय गुजर जाता ,
समझौते भरी जिंदगी समझ में  आता है ,
पर समझौते भरा बचपन आज भी रुलाता है,

मेरे पास कुछ नई है,
फिर भी,
मेरे पास बहुत कुछ है ,
कुछ स्मृतियाँ ही ,
मेरे लिए बहुत कुछ है,

गीतकार 
एमन दास मानिकपुरी
औंरी, भिलाई —3, दुर्ग
मो.7828953811

चित्र साभार: श्री फागुराम यादव जी

।।हिन्दी छत्तीसगढ़ी गलबहियां।।



सुनके आई जबे संगी, 
जीयरा हे मोर उदास ।।सुनके।।

मेरे चतुर्दिक छली व कपटी खड़े है,
लुटने धनजन लुटेरे भी अड़े हैं। 

महाजनम अकारथ झन होय,
कबीर गीत ल गाथव।
इही जनम म काँटा बगरे,
अऊ जनम बर फुल चढ़ाथन। 

मन मया के मरकी का करबे,
करम ला दोष लगाके।
मोरे जिनगी बिरथा होगे,
गीत म गीत सजाके। 

परवस्ती म गोई ठिकाना बेठिकाना हे।
जान ले रे बैरी कभू आना कभू जाना हे।

अंतस के मैना रे मोर पड़की परेवना।
तही नइ्र चिन्हेस ते दूनिया के का कहना।
नजर मिलाके कहते हो, 
भइगे मोरेच दिल में रहना।

ऐ छैला बाबू मय जान डारेव,
घाट घठौंदा के किरिया करार।।ऐ छैला।।

चलते चलते थक गई, अबतो सहारा देदे।
ऐ मेरे मेहबुब साहिल, एक बार किनारा देदे।

सुनती के गोठ संगी भरम लेथे जियरा।
हिरदे म हमा जा रे ऐ मोर हिरा।
पहाड़ी मय मैना, ते उत्ती के सुरूज।
बुले आबे पाटन येदे खाल्हे दूरूग।

खारा मिठा गुपचुप भेलवाही ठेला।
घुम लेतेन जोड़ी मोर मेला ठेला।
पड़री खुसियार ओखरा बतासा।
चना मुर्रा लड़ू ढेलवा तमासा।

भौजी तिरबेंगली पटपटही ननंदिया।
झटकुन लहुटबो देही मोला खिसिया।

मइके के मया होगेंव बेटी बदना।
ससुरे मयारू गोदे हवव गोदना।

का नाव लेबे रे करिया दवले मया मे।
तेरे खातिर हुई हूं कुरबां इस जहां में।

—एमन दास मानिकपुरी
   औंरी, भिलाई—3, दूरूग वाले।
  मो.7828953811 

"बइठे आबे गजामुंग"


लिम चौंरा  बइठे गजामुंग,
चुंदी झुखोलेबे घाम म।

रमसिला, सुसिला, सुकवारो, मिलापा,
कजरेली कमला बिमला लकर्री झलापा।

टिकली लेबे लाली कारी घरी काजर,
चुंदी चट घपटे घन अंधियारी बादर।

लाहर बटोर तोर मया लहरबुंदिया।
देखे बिन गउंकी नई आवे निंदिया

ननपन के राधा, सखी मनभा दुलारी,
पुछती आबे कहूं उहू मन काली आही।

सपना के गोठ गोठियाबों मिलभांज।
सांवर सुरखस घलो आही माहूंर आंज।

रेवती ल कहि देबे रेंदही पारा भर म।
पहलीच ले चेता दिही दाई ल घर म।

रेसटिप फुगड़ी बिल्लस पित्तुल नंदागे हे।
तभो ले हिरदे म घनी मुंदी छा गे हे।

— एमन दास मानिकपुरी
औंरी, भिलाई—3, दुरूग।
 मो. 7828953811