शनिवार, 5 मई 2018

शहर कोई दूसरा बसाना पड़ेगा!

शहर कोई दूसरा बसाना पड़ेगा!

बहुंत फैला है जहर, यहां से जाना पड़ेगा।
लगता है शहर कोई दूसरा बसाना पड़ेगा।।

पहले जैसी भूख अब लगती कहां है।
दिखाने के लिए कुछ तो खाना पड़ेगा।।

ऐसे ही बात अब कहां बनती है।
थोड़ा आरजू दिल में जगाना पड़ेगा।।

हर मोड़ हर सड़क भीड़ में भी सुने है।
वक्त रहते खुद को सम्भल जाना पड़ेगा।।

गांव की यादें सिमट न जाये कहीं।
ठिक ही है लौट कर जाना पड़ेगा।।

—एमन दास




चलो कुछ इमानदारी दिखाये!

चलो कुछ इमानदारी दिखाये!

बहुंत हो गया खुद को डुबोय रखना।
थोड़ा हिम्मत करें बाहर आ जाये।।

चारो तरफ छली,कपटी खड़े दिखते है।
सत्य को जीताना है चलो भीड़ जाये।।

राह कठिन है बहुंत इस मंजर में।
थोड़ा सम्भल कर ही सही आगे बढ़ जाये।।

—एमन दास

''बहुंत आती है''



उस सर्द हवा की याद बहुंत आती है। 
धुप भी ठिक है मगर, वो ज्यादा भाती हैै।।

नये मौसम को जाने क्या हो गया है।
जहां फूल ​थे कभी, अब कांटे चुभाती है।।

कोना कोना हौसला खोने लगा है अब।
जो कभी हंसाते थे अब रूलाती है।। 

आलम इस कदर है इस आबो हवा का।
उस आबो हवा से फिर भी टकराती है।।

अचानक दिलरूबा बनजाता है बेहिचक।
पता नहीं चलता कब गले पड़ जाती है।।

—एमन दास