गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

ठउका पगुरावत आबे रे,

आकाशवाणी रायपुर द्वारा 'मोर भुईंया' कार्यक्रम में प्रसारित,,,
'गीत'

ठउका पगुरावत आबे रे,
दलबदलु गोल्लर।
तब जुठा काठा पाबे रे,
दलबदलु गोल्लर।

जादा झन मेछराबे,
पुछी भर ल हलाबे,
तय छटारा झन लगाबे रे,
दलबदलु गोल्लर।
ठउका पगुरावत आबे रे,
दलबदलु गोल्लर।

सींग ल झन हलाबे,
हुदेन हुदेन के खाबे,
जादा मुंह ल झन उलाबे रे,
दलबदलु गोल्लर।
ठउका पगुरावत आबे रे,
दलबदलु गोल्लर।

तोर पुछैया बहुंत कम हे,
फेर कुबड़ म बहुंत दम हे,
हुंकरत भुंकरत बइठ जाबे रे,
दलबदलु गोल्लर।
ठउका पगुरावत आबे रे,
दलबदलु गोल्लर।


पेरा भुंसा बर झन मरबे,
बने हरियर चारा ल चरबे,
ढिल्ला पुल्ला म खुसरबे रे,
दलबदलु गोल्लर।
ठउका पगुरावत आबे रे,
दलबदलु गोल्लर।

कभू अकेल्ला झन तय रीबे,
बने पानी पसिया ल पीबे,
बरदी संग म संघरबे रे,
दलबदलु गोल्लर।
ठउका पगुरावत आबे रे,
दलबदलु गोल्लर।

गीतकार
—एमन दास मानिकपुरी
रचना वर्ष — 2018
प्रसारण— 'मोर भुईंया' कार्यक्रम अकाशवाणी रायपुर

रसता

जरके जबर बैर भुंजागे।
लेसागे गरब गरू छाती।
समय समय के बात हे,
कभू दिन कभू राती।

राजनीत के ठुड़गा रूख,
रटहा सब डारा डारा।
जड़ पाना कस्सा करू,
फल फुल खारा खारा।

सुवारथ के टेड़गा रसता,
आंखी मुंद जेन चलही।
जिनगी जनम सब अकारथ,
सुक्खा राख धरही।

भेद भरम भभकउनी म,
हवा सही उड़ियाही।
लहसे लालच के नार तरी,
खड़े खड़े मड़ियाही।

चरदिनिया दुनिया के मेला,
चारेच दिन के बात।
नेता बन जीभर खाले,
कभू गारी कभू लात।

जात पात सब मटिया मेट,
जिनगी जनम सब हारे।
वाह रे कुर्सी तोर खेल,
का मोहिनी मुड़ डारे।

वोट अमीरी वोट गरीबी,
वोट सबन के संगवारी।
वोट परछी वोट छानही,
वोट बखरी अउ बारी।

खलक उजर के देखव,
जनम इही हे अनमोल।
लेखा जोखा सब खइता,
बने मुंह फटकार बोल।

फक्कड़ बर दू सवांगा,
चोंगी माखुर अउ बासी।
बइहा बर ससता सुख,
कभू हांसी कभू उदासी।

चेत करो झन रौंदो भाई,
देश के इज्जत गोड़तरिया।
सउंहत काल बइठे पाबे,
एको दिन तोर मुढ़सरिया।

मरना सहज भले हो सकथे,
फेर जीनगी हे हीरा सोना।
बखत रहत आंखी खोलव,
फोकट एला का खोना।

महाजनम मनुष तन पाके,
खुब रेंगे तय ह रद्दा।
भोग भाव म सुख खोजे,
चिकना खटिया अउ गद्दा।

रीस रांढ़ के गोठ बात,
मन म धरे बगियाये।
दुआ भेद बढ़ाके रे बैरी,
जुच्छा जनम गवाये।

तन पिंजरा के पंछी ल,
नै समझे अज्ञानी।
बाहर भितर अंधियारी म,
भटक मरे अभिमानी।

पुरखा के बात म बल हे,
नोहय फोकट कहिनी।
सत्य अहिंसा मारग मान,
सुनता सरग निसइनी।

हक बिरता बांट बिसारो,
झन बनौ बइमान।
हिनता मनता मानुष बर,
कांटा खुटी समान।

—एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'




शनिवार, 1 दिसंबर 2018

तोर सुरता म,,,,,

तोर सुरता म सवरेंगी संवरा गेव रे
तोर मया म पतरेंगी पतरा गेव रे
कुंदरू नार सही पीरा हा छछलगे 
पाके करेला कस छरिया गेव रे
तोर सुरता म,,, 

बागे बगैचा म मोर नै लागय मन
नरवा झिरिया कस झुखागे हे तन 
खार डोली कस गउकी बहरा गेंव रे।
तोर सुरता म,,, 

पाना पतेवना सही टुटत रइथव
भीतरे भीतर म में घुटत रइथव
हरदी सहीं सिरतोन कुचरा गेंव रे।
तोर सुरता म,,, 

तोर पिरित छैहा म सुरता लेतेंव का
हिरदे के पीरा ल गोठिया लेतेंव का
मय संसो म लेसा के अइला गेंव रे
तोर सुरता म,,, 

लोखन होगेे मया तोर मीठ बोली
आभा मारत आबे संगी मोर गली 
होके बियाकुल में बैहा गेव रे 
तोर सुरता म,,, 

—एमन दास​ मानिकपुरी 'अंजोर'



बारी म मिरचा अउ चिरपोटी पताल,

बारी म मिरचा अउ चिरपोटी पताल,
धनिया महर महके माते खेती खार।
घपटे अरसी तिवरा झमाझम ओन्हारी,
घुमघुम ले गहूं बगरे चना चनवारी।

झोत्था झोत्था सेमी लहसे डारी डारी,
छछलथे तुमानार चढ़है झिपारी।
पयडगरी के तिर—तिर राहेर मुसकाथे,
रद्दा रेंगैया के मन ल ललचाथे।
कंवला खोखमा के सुघरई छागे,
मुनगा के रूख म मुनगा ओरमागे।
ऐसे मजा मौसम के जुड़ पुरवाही म,
छागे बहार देखव कटही बमराही म।
—एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'

ग्यान बिन मनखे, होगे हे गंवार।

ग्यान बिन मनखे, होगे हे गंवार।
जुच्छा जनम सरी जिनगी अंधियार।।
पढ़े लिखे भोकवा, मारत हे फुटानी,
नता—गोता चिन्हें नहीं, करथे हिनमानी।।
काम—बुता ठिकाना नहीं, गिंजरे गली खोर।
दाई—ददा ल चिन्हें नहीं, बनगे रनछोर।।
पहार सहीं जिनगी, धुर्रा म धरदिस।
बबा के खंदैया छिन म गंदा करदिस।
कोख कपूत के कईसे, होथे आनतान।
बाप के मया नई जाने होगे बेईमान।।
पुरवज के मान करव तुहंला बरजत हंव।
जेखर पुनपरताप अमर हे उहंला बंदत हंव।।
—एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'

इतिहास बनाना जानते है।

भोगा हुआ यथार्थ को बताना जानते है,
सोए हुए एहसास को जगाना जानते है।
कल्पानाओं में उड़ने वाला कवि नहीं है हम,
अनुभव के सयानेपन से इतिहास बनाना जानते है।
ये तलवार बाजी हम पे नहीं चलेगी जनाब,
हम तो समर में भी कलम खूब चलाना जानते है।
हमरफनमौला को बड़बोला न समझना,
हमारी मर्जी जिधर चाहे जाना जानते है।
बादशाही फितरत के धनीं है तभी तो,
सारे जहां की जागिरी चलाना जानते है।
जर्रे—जर्रे, कण—कण में हमको ही पाओगे,
जलवा है, जलवा दिखाना जानते है।
मंजिल भी है हम और सफर भी हम है,
भटके हुए को हमसफर बनाना जानते है।
रास्ता कठिन है ​प्रीत का 'पगला बलम'
प्यार में​ मिटके जीत जाना जानते है।
—एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'

बंदीछोड़

——सप्रेम साहेब बंदगी साहेब——
जय जय जय हे कबीर कृपालु।
बंदीछोड़ साहेब ​दीन दयालु।।
सुत उठ के बड़े बिहनिया,
तोला माथ नवांव।
जेती देखंव तेती साहेब,
सिरिफ तुहीं ल पांव।
बंश बियालिश तोरे शरण म,
घोंडत हंव दिन रात,
महूं ल चिन्ह लेबे साहेब,
राख लेबे मोर बात।
मय अढ़हा तोर महिमा के,
कतका करंव बखान,
बंदगी हवय पल छिन,
जपत रहंव सत्यनाम।
—साहेब की कृपा से

पर्यावरण के नारा।

स्वारथ के शूली म चढ़गे,
पर्यावरण के नारा।
गोल्लर कस हुंकरत भुंकरत हे,
रूख—राई के हत्यारा।
कतको कमाबे पुर नई आये,
जेकर करम बिरबिट करिया हे।
मय भरे ​तरिया खाल्हे देखेंव,
ओकर धनहा परिया के परिया हे।
पढ़े लिखे तक अढ़हा होगे,
बईहा होगे बेपारी।
नेता मन सब नकटा होगे,
निचट गदहा होगे अधिकारी।
राजनीत रांढ़ी रक्खी बर,
सबो के डोलत हे ईमान।
बने —बने मनखे मन होगे,
लबरा जुटहा अउ बेइमान।
मरनी के बेरा म करनी दिखे,
तभो ले नई चेते इंसान।
आंखी देखे सुने कान फेर,
बइठे हे बन के अनजान।
दया धरम हिरदे म धरही,
तौने सरग ल पाही जी।
अउ जनम बर फुल का चढ़ाबे,
इही जनम सफल हो जाही जी।
अइसे करनी करव मोर संगी,
सब माया भसम हो जाये।
बड़ दुखदाई ये पिंजरा छोड़,
हंसा अपन घर जाये।
साहेब बंदगी साहेब
—एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'

अंगना अंजोरी कब होही?

अंधियारी म दुखयारी के, अंगना अंजोरी कब होही?
हो रे हो! अंगना अंजोरी कब होही?
सांस के तेल जरय, आस के बाती हो।
तन माटी के दियना, बरय दिन राती हो।
जिनगी म पियारी के, बंधना डोरी कब होही?
हो रे हो! अंगना अंजोरी कब होही?
बछर — ​बछर बैरी, उमर उड़ भागे हो।
रसता जोहत दूनो, नैना नजर लागे हो।
कुलवंतीन कुंवारी के, लगन होरी कब होही?
हो रे हो! अंगना अंजोरी कब होही?
लाज लहर के पीये, मधुर मतौना हो।
बरबस रूप रंग, साजे खोचे दौना हो।
मया म चिन्हारी के, संग संगवारी कब होही?
हो रे हो! अंगना अंजोरी कब होही?
लुगा के अचरा लाली, झन लुलवाये हो।
आंखी के कजरा कारी, झन बोहावे हो।
लोखन लेनहारी के, सगा ससुरारी कब होही?
हो रे हो! अंगना अंजोरी कब होही?
आंखीच आंखी म, सुरता समाये हो।
संसो फिकर म, सरी जिनगी पहाये हो।
धनी बिन धियरी के, परछी बारी कब होही?
हो रे हो! अंगना अंजोरी कब होही?
तन म मौरे हे, मन के मौहा हो।
बैरी बिकट गरू, मुढ़ बोझा झौंहा हो।
रस रंग गुलाली के, माहूर मोटियारी कब होही?
हो रे हो! अंगना अंजोरी कब होही?
घाट घठौंदा नदी नरवा नहाक लेतेंव।
कोठा कुरिया ल बने, जीभर झांक लेतेंव।
बेरा म चला चली के, कोनो दोसदारी झन देहू!
हो रे हो! सैंया के नांव ले लेहूं
—एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'

शहर कोई दूसरा बसाना पड़ेगा!

शहर कोई दूसरा बसाना पड़ेगा!
बहुंत फैला है जहर, यहां से जाना पड़ेगा।
लगता है शहर कोई दूसरा बसाना पड़ेगा।।
पहले जैसी भूख अब लगती कहां है।
दिखाने के लिए कुछ तो खाना पड़ेगा।।
ऐसे ही बात अब कहां बनती है।
थोड़ा आरजू दिल में जगाना पड़ेगा।।
हर मोड़ हर सड़क भीड़ में भी सुने है।
वक्त रहते खुद को सम्भल जाना पड़ेगा।।
गांव की यादें सिमट न जाये कहीं।
ठिक ही है लौट कर जाना पड़ेगा।।
—एमन दास

संसो बहुंत हे!

संसो बहुंत हे!
कईसे बिगड़ी ल बनाबो,
कईसे जिनगी ल जगाबो।
कईसे जांगर ल चलाबो,
कईसे खाबो अउ कमाबो।
संसो बहुंत हे!
कईसे भेदभाव ल मिटाबो,
कईसे जुरमिल के गाबो।
कईसे सुख ल बिसाबो,
कईसे हांसबो अउ हंसाबो।
संसो बहुंत हे!
कईसे खेती ल बचाबो,
कईसे गांव ल सजाबो।
कईसे दुख ल बताबो,
कईसे गाना ल गाबो।
संसो बहुंत हे!
—एमन दास मानिकपुरी

——जागे——

नांगर जागे नंगरिहा जागे, जागे खेती खार।
नरवा जागे तरिया जागे, जागे डोंगरी पहार।
गांव जागे गंवइहा जागे, जागे जबर जोहार।
बेरा जागे बखत जागे, जागे तिथि तिहार।
पाना जागे पतेवना जागे, जागे फुल बहार।
कंवला जागे खोखमा जागे, जागे नदिया कछार।
रापा जागे कुदारी जागे, जागे गैंती धार।
बड़ तेज तुतारी जागे, जागे टंगिया कटार।
जाड़ जागे जड़इया जागे, जागे गोरसी आगी।
भुर्री जागे तपइया जागे, जागे पागा पागी।
कपाट जागे सकरी जागे, जागे छानही परवा।
पठेरा जागे पठौहा जागे, जागे मियार सरहा।
गुरू जागे चेला जागे, जागे कण्ठी माला।
काया जागे माया जागे, जागे अल्ला ताला।

गीतकार— एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'

मरके घलो सरग नई पायेन,,,

मरके घलो सरग नई पायेन,
मिहनत होगे मुढ़बोझा रे मोर भाई।
जांगर टोर जीभर कमायेन,
जुड़ खोजेन आगी ओधा रे मोर भाई।।
आ.. आ.. आ...
हो.. हो.. हो....
होय..हेय..होय...हर्रर्रर्र...
माटी मिहनत तोर सवांगा,
माटी मिहनत तोर सवांगा,
ते भुईंया के भगवान,
जय हो, जय हो, ग किसान,,
तोर, जय हो, ग किसान,,
चुहत तोर पसीना म,
देश के भाग लिखाये हे।
तोर बाजू बल ह,
सबो के भाग जगाये हे।
तोर भाग बदे भुर्इ्ंया म,
तोर भाग बदे भुर्इ्ंया म,
तय भुईंया के भगवान,
जय हो, जय हो, ग किसान,,
तोर, जय हो, ग किसान,,
बेरा घलो थक के बुढ़ जथे,
तोर जांगर थकय नहीं।
माटी ले सोना उपजाये,
तोर सहीं कोनों सकय नहीं।।
का पथरा का ढेला रे संगी,
का पथरा का ढेला रे संगी,
सबो हे तोर मितान,
जय हो, जय हो, ग किसान,,
तोर, जय हो, ग किसान,,
गीतकार—
एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'

''वोट के महिमा''

''वोट के महिमा''
तय जाने नहीं का जी,
तय जाने नहीं का ग,
अपन वोट के महिमा ल,
तय जाने नहीं,,,।
वोट के अधिकार ल सबो बर बनाये हे।
कईसे वोट करना हे पर्ची म लिखाये हे।
प्रत्याशी बने चुनना हे,
सिरतोन निमार के,
तय जाने नहीं का जी,
तय जाने नहीं का ग,
अपन वोट के महिमा ल,
तय जाने नहीं,,,।
अठारा साल से कोनो भी वोट कर सकत हे।
नाम जुड़ाये बर चुनई के पहिली बखत हे।
बड़ नोहर मौका हे,
झन भुलाहू गांव शहर के,
तय जाने नहीं का जी,
तय जाने नहीं का ग,
अपन वोट के महिमा ल,
तय जाने नहीं,,,।
कोनों लालच दिही त, लालच म नई आना हे।
सब काम काज ल छोड़ के, वोट करे बर जाना हे।
जागरूक जनता हन,
जागरूकता दिखाना हे,
तय जाने नहीं का जी,
तय जाने नहीं का ग,
अपन वोट के महिमा ल,
तय जाने नहीं,,,
हमन जान गेन जी संगी,
हमन जान गेन जी भैया,
अपन वोट के महिमा ल,
हमन जान गेन,,,।
गीतकार—
एमन दास मानिकपुरी

वोट के ताकत ,,,

हमरे कमई म सबो झन भुंकरत हे!
कोलिहा कुकुर कस खा के डंकरत हे।
अब आये हे मौका मजा बताना हे जी,
अपन वोट के ताकत ल देखाना हे जी।
जिय जांगर ल थको के हमन,
मर मरके कमाथन।
आये चुनई बखत म पी के,
जुच्छा राख धराथन।
धारोधार दारू सही नइ बोहाना हे जी,
अपन वोट के ताकत ल देखाना हे जी।
माटी—पुत मजदूर होय चाहे,
श्रम देवता किसान।
हक बिरता बर जिना मरना,
कहिथे गीता अउ कुरान।
गांव गांव म इही जोत जगाना हे जी।
अपन वोट के ताकत ल देखाना हे जी।
लुटे बर छत्तीसगढ़ बनगे,
चारो मुढ़ा चमके वेपार।
खेती खार जम्मो उजड़गे,
कब तक सहिबो अत्याचार।
लहूवान जवान मन ल चेताना हे जी।
अपन वोट के ताकत ल देखाना हे जी।
मुंह के कौरा गिरवी धरागे,
कतको भुईंया बेचागे।
स्वाभिमान के नारा उजड़गे,
सबे भितरे​ भितर लेसागे।
जुरमिल धरती दाई के लाज बचाना हे जी।
अपन वोट के ताकत ल देखाना हे जी।
गीतकार—
एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'

एको दिन रार मचाबो रे,,,

माटी बर मुढ़ी कटाबो रे,
सबले बढ़िया हम।
एको दिन रार मचाबो रे,
सबले बढ़िया हम।
पीके विष अमृत बांटव,
मय निलकण्ठ अवतारी अव।
जांगर टोर सोना उपजाथव,
हरिश्चंद कस दानी अंव।
पथरा म धार बोहाबो रे,
सबले बढ़िया हम।
एको दिन रार मचाबो रे,
सबले बढ़िया हम।
हलधर हाथ बुड़ै करजा म,
माटी पानी बर जुझत हे।
सपना म सुख नोहर होगे,
अब कुछू नइ सुझत हे।
पुरबल परताप बताबो रे,
सबले बढ़िया हम।
एको दिन रार मचाबो रे,
सबले बढ़िया हम।
वीर नारायण के सपूत हम,
संगे म जीना मरना हे।
हक बिरता बर आगू आवव,
भभक के आगी बरना हे।
बैरी के नाश देखाबो रे,
सबले बढ़िया हम।
एको दिन रार मचाबो रे,
सबले बढ़िया हम।
अधिकारी वेपारी नेता के,
राजपाठ म बसे परान।
राजनीत रांढ़ी रक्खी बर,
देखव डोलत हवै ईमान।
देश दाई ल बचाबो रे,
सबले बढ़िया हम।
एको दिन रार मचाबो रे,
सबले बढ़िया हम।
गोल्लर कस गिंजरत भुंकरत हे,
दरबारी दोगला दानव।
सउंहत गिदवा लोमड़ी ये,
एला मनखे मत मानव।
जुरमिल के जोर लगाबो रे,
सबले बढ़िया हम।
एको दिन रार मचाबो रे,
सबले बढ़िया हम।
गीतकार—
एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'

जिहां के माटी चंदन बंदन,,,,

जिहां के माटी चंदन बंदन,
पसरे सबो के परान रे।
चोरहा लबरा तक बर ठिहा,
राज करय बेइमान रे।
जिहां बैरी मन भी सुख पाथे,
पाथे दया मया दान रे।
भिखमंगा बर ठउर सुख के,
इहां आके होथे धनवान रे।
जिहां के मनखे सिधवा सधवा,
मरे न छूटय इमान रे।
सपना म सुख सोचय नहीं,
कइसे गढ़े हे भगवान रे।
जिहां मया बर मित मितान,
पिरित बर मिठ जुबान रे।
तिरथ बरत कस बोली भाखा,
तरजाए सुनैया कान रे।
जिहां खार—खार गुंजय ददरिया ,
बारी डोली करमा के तान रे।
पड़की के थपकी म मन बोथाये,
रतिहा लागय दिनमान रे।
—एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'

मनखे तन अमोल रे,,,

दया मया बिन ए जिनगी के,
काहींच नइ हे मोल रे।
दिन दुखी माटी चोला तोर,
मनखे तन अमोल रे।
सुख दुख हे जिनगी के रसता,
ससता झन समझबे।
पाछू परे हे काल निरंजन,
एको दिन अरहजबे।
करम धरम बिन ज्ञान अकारथ,
फोकट झन तोल रे।
दया मया बिन ए जिनगी के,
काहींच नइ हे मोल रे।
मिल उठ गोठियाले बने,
सबो डहर सुछेल्ला हे।
रीस रांढ़ के गोठ बिसार,
जाना फेर अकेल्ला हे।
खाले कमाले बने गोठियाले,
भेद जिया के खोल रे।
दया मया बिन ए जिनगी के,
काहींच नइ हे मोल रे।
बाहर भितर एके बरोबर,
सुमत के जिनगानी।
आंखी देखे सुने कान के,
होही सबे पानी पानी।
जियत भर के बोली भाखा,
बने जतन के बोल रे।
दया मया बिन ए जिनगी के,
काहींच नइ हे मोल रे।
—एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'

महानदी,,,

सिहावा के कोरा ले,
ठुमकत आथे महानदी।
फसकरा के बइठे गंगरेल म,
पियास बुझाथे महानदी।
माटी ऊजराके उजजर होगे,
सबके भाग जगाथे महानदी।
लहरा तौर गंगा बरोबर,
पाप धोवागे महानदी।
—एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'

बोली भाखा ह नंदावत हे,,,

बोलव बने डटके,
बेरा अगुवावत हे।
लाज सरम के मारे,
बोली भाखा ह नंदावत हे।
पुरखा के परताप रथे,
तब मानुष तन तरथे,
महतारी के मया मुंह म,
भाखा बन के बगरथे।,
गोठ बात ये जीनगी म,
काबर धंधावत हे,
लाज सरम के मारे,
बोली भाखा ह नंदावत हे।
मन के मिलैया भाखा,
भाखा तन के पहिचान हरे।
सबो के भाखा चिन्हारी,
भाखा सबो के परान हरे।
अतेक मिठ तोर बोली,
काबर ते अइलावत हे,
लाज सरम के मारे,
बोली भाखा ह नंदावत हे।
—एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'

जागव,,,,, ,,,,,,,,,,,,,,

जुठन की रोटी पर अब हम,
कब तक से गुनगान करें।
आस मिटी और सांस थमी,
तब मरने पर गुमान करें।
छोड़ो कल की गीतों को अब
हम राग आज की गायेंगे,
हक खातिर जियें मरें तब,
फिर नया सुराज लायेंगे।
अपनी अपनी दफली ताल,
अपनी ही सुर में गाता है।
देखो शेर की खाल ओढ़कर,
गीदड़ शोर मचाता है।
जंग लगी तलवारों को तुम,
दफन करो गद्दारों को।
घर ही में घर को लुटने वाले,
घर के ही पहरेदारों को।
धू धू कर जलती हरियाली,
लाल हो गर्इ् अधिकारों से।
जो लड़ाई अब बुझ न पाई,
नारों और हथियारों से।
जिसने ख्वाब देखें कभी,
कापी कलम दवादों की।
उनके सर पे लिखा गया,
परिचय इन जल्लादों की।
छिपा हुआ है दूश्मन अभी,
अपनों की पलकों दामन में।
सोचों कैसे आग लगायें,
अपने ही घर आंगन में।
लोकतंत्र की चक्की में,
उनकी ही रोटी सिक रही।
मासूमों के हिस्से का,
जीनके बाजार में बिक रही।
खादी मैली हुई अभी है,
राजनीति के नाम पर।
उसकी आंचल भी फटी पड़ी,
आजादी के सवाल पर।
अनदेखी आदत को छोड़ों,
मुटठी में तकदीर छिपा है।
किसमत को मत कोसो प्यारे,
मिहनत में सौभाग्य लिखा है।
गुंज उठा है डोंगर का दुख,
जंंगल जंगल गलियारों।
सीसक रही है कौसल धरती,
बुला रही है सुन प्यारों।
- एमन दास मानिकपुरी