तेरी धुन और लय से ही,
मेरी कविता लहलहाती है।
स्वासों की सब सरगम भी,
कारण्य स्तुति गाती है।
नित नूतन नव रूप लिये,
घनघोर गहन कुछ बोल रहा।
हो आतुर नभ धरा मिलन को,
मानो भव भेद खोल रहा।
दूर शिखर से झरझर करती,
झरने धरती को चुम रही।
आती बलखाती कलकल करती,
नदिया हर्षित हो झुम रही।
राग विराग की आकुल छबियां,
भूनिधि बस्तर की घराने में।
कहीं उंचे उंचे सरई सुहाने,
कहीं खड़ा पहाड़ विराने में।
कहीं गेड़ी की टंकार गुंजती,
कहीं मांदर की तरूण थाप।
कहीं घोटूल की माढ़ अबूझी,
कहीं घाटी घनी पूणप्रताप।
जहाँ अंतरद्वंद की तिमिर ताप,
चेलिक थिरकन से कांप रहा।
जहां चौंक कर व्याकुलता भी,
निज मनुज कर्म को भांप रहा।
हे धीर गंभीर महातपस्वीनी,
दण्डक भुइंया तुम्हें प्रणाम।
हे प्रयाणी महा बलिदानी,
हे परम सुहावनी हे कानन।
-एमन दास मानिकपुरी
anjorcg.blogspot.com
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