सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

हो रे फागुन - कवि एमन दास मानिकपुरी

तोर मया मोहना मोर नोहर भईगे
एसो के फागुन ह या जहर भईगे 

सांस के दिया जरे आस के बाती म 
अईसने जरत बरत बैरी बरस भईगे 

का घर बन अंगना का पंछी दूवारी 
बिजराथे बैमान सुरता बजर भईगे 

बिकट लाहो लेथे परसा के फुल 
गजब गरू गऊकी ये नजर भईगे 

खार डोगरी नरवा तरिया ताना देथे 
करू कछार गांव बस्ती डहर भईगे 

फागुन के लाली रंग गुलाली नै हे
लोखन पिरित के पीरा पहर भईगे 
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चित्र: साभार इंटरनेट 







सोमवार, 10 फ़रवरी 2020

है कौन क्षितिज के पार

रोज सुबह कदम कदम
चल पड़ती है जिंदगी
जाने कैसी तलाश है
है जाने कैसी प्यास

कुछ पाने का हर्ष नया
कुछ खोने का है विषाद
कहीं कहीं पर हारा है
है कहीं कहीं आबाद

सपना ही तो लगता है
सब क्षण भर का एहसास
जो कल उसके पास था
वो आज है इसके पास

कई चेहरे हंसते हैं यहाँ
कई चेहरे हैं बहुत उदास
कई अभी मालिक बना
कई सदियों से हैं दास

रोज नया निर्माण यहां
है रोज नया विनाश
मन के कोने कोने में
उठती मिटती है आस

हरदम नव संघर्ष यहां
है नया नया विश्वास
चला चली की बेला में
कौन है किसके पास

कौन हाथ धरा बंधी है
है टंगी गगन कौन तार
ये कौन उगाता सूरज है
है कौन क्षितिज के पार

-एमन दास मानिकपुरी
anjorcg.blogspot.com
चित्र साभार - इंटरनेट


गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

मुक्तक

जबले छत्तीसगढ़ ह नवा राज बने हे
बाहिर के कोलिहा कुकुर इहां बाज बने हे
अधिकारी बेपारी नेता ढोल पीटत हे
राजनीति इकर मन के साज बने हे


लुटे बर छत्तीसगढ़ बनगे, चोरी के चलय बेपार रे
लबरा मन चांदी काटय, दोगला बर सजे बजार रे
हक बिरता सबो नंगागे, का गांव का शहार रे
तोर हमर बर रोज गरीबी रोजेच हवय दूकाल रे




बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

हरहा मरहा मन जिय के थेभा
इही धरती म पाइन रे
इही धरती म आ के सबो हा
अपन परान बचाइन रे

उही कोरा ल कोंवर जान के
आज देख तो रौंदत हे
हमरे संग म रहिके हमरे
अंगना बारी ल गौंदत हे

परदेशिया गोल्लर मन इहां
आ आके सकलावत हे
कोलिहा कुकुर सहीं खा के
अपने अपन बकलावत हे

जौन ल इहां मिलीस मया जी
तौने आज मस्तियावत हे
आ के सरग सहीं भुइंया म
खा खा अटियावत हे

उही धरमी धरती आज अपन
अस्मिता बर गुनत हे
कोनो पूत मोर दरद पीरा अउ
कलपना ल सुनत हे

उही मन एक दिन निकलही रे
घर घर बाना ल धर के
छाती ल चिरही लहू पीही रे
बैरी उपर चढ़ चढ़ के

आज के चिंगारी काली देखबे
दावां सही भभकही रे
बघवा पीला कभू तो उठके
चपकही हबकही रे







मंगलवार, 4 फ़रवरी 2020

भौंरे भी लगे कांपने

ऐ बावले बसंत!

आना था मधुमास लेकर
बारिश लेकर आ गये
भौंरे भी लगे कांपने
क्यों कलियों को तरसा गये

परसा फूल खार म
बिकट लजाए हे
जीभर के सेमर ह
समरे नइ पाए हे

अरसी सरसो तिवरा चना
 चनवारी म मताए हे
बदरी बदमाश गजब
बिल्होरे बर आए हे

मौसम बसंती में
बेमौसम फुहार देखो
तन की तपन में
भीगे मन की बहार देखो

वासंती झोखें में
ये कैसी ठिठूरन हैं
बागो में बहती
अजब सी सिहरन हैं

पयडगरी पुछत हे
पौठा डहर चुप
बगरे बसंत तय
आजा कलेचुप

—एमन दास मानिकपुरी