शनिवार, 1 दिसंबर 2018

जागव,,,,, ,,,,,,,,,,,,,,

जुठन की रोटी पर अब हम,
कब तक से गुनगान करें।
आस मिटी और सांस थमी,
तब मरने पर गुमान करें।
छोड़ो कल की गीतों को अब
हम राग आज की गायेंगे,
हक खातिर जियें मरें तब,
फिर नया सुराज लायेंगे।
अपनी अपनी दफली ताल,
अपनी ही सुर में गाता है।
देखो शेर की खाल ओढ़कर,
गीदड़ शोर मचाता है।
जंग लगी तलवारों को तुम,
दफन करो गद्दारों को।
घर ही में घर को लुटने वाले,
घर के ही पहरेदारों को।
धू धू कर जलती हरियाली,
लाल हो गर्इ् अधिकारों से।
जो लड़ाई अब बुझ न पाई,
नारों और हथियारों से।
जिसने ख्वाब देखें कभी,
कापी कलम दवादों की।
उनके सर पे लिखा गया,
परिचय इन जल्लादों की।
छिपा हुआ है दूश्मन अभी,
अपनों की पलकों दामन में।
सोचों कैसे आग लगायें,
अपने ही घर आंगन में।
लोकतंत्र की चक्की में,
उनकी ही रोटी सिक रही।
मासूमों के हिस्से का,
जीनके बाजार में बिक रही।
खादी मैली हुई अभी है,
राजनीति के नाम पर।
उसकी आंचल भी फटी पड़ी,
आजादी के सवाल पर।
अनदेखी आदत को छोड़ों,
मुटठी में तकदीर छिपा है।
किसमत को मत कोसो प्यारे,
मिहनत में सौभाग्य लिखा है।
गुंज उठा है डोंगर का दुख,
जंंगल जंगल गलियारों।
सीसक रही है कौसल धरती,
बुला रही है सुन प्यारों।
- एमन दास मानिकपुरी

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