गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

गजल

साहिल से कहो कि मझधार ज़िंदा है
कश्ती जो डूबो दे वो पतवार ज़िंदा है

कभी तो बदलना होगा रद्दी किताब को
किसी पन्ने में नकली अधिकार ज़िंदा है

मैं शायर हूं जनाब कोई जंगबाज नहीं
लेकिन अभी तलक तलवार ज़िंदा है

हर डाली ऊल्लूओं का बसेरा है यहां
बनके हकदार कई मक्कार ज़िंदा है

अपने मर रहे थे तो चूप्पी साध ली थी
दुश्मन की आह पे रोने ये गद्दार ज़िंदा है

उठो मां भारती रथ पर बैठ करो प्रहार
हरने तेरा भाग असुरी ललकार ज़िंदा है

- एमन दास मानिकपुरी
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मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

सड़क और जंगल

सड़क सिंगार है शहर का
लंबी चौड़ी चमचमाती सड़क
जंगल के लिए तो नरक
भूखी प्यासी तमतमाती नरक

सड़क शहर से नरक बनकर
मुड़ रहा है जंगल की ओर
राक्षसी सड़कें घूर रही है
पहाड़ का सीना चीरने
और डोंगर से भीड़ने

अंग्रेजों ने भी बिछा  दी थी
रेल की सड़कें
सुविधा देने नहीं
स्वारथ ढोने के लिए
और लाद ले गए थे
अमूल्य खजाने

अब पहले से भी ज्यादा
खूंखार हो चुकी है सड़कें
उसकी लाल आंखें
ओधते सुंघते बढ़ते
बीहड़ को रौंदते
झुण्ड की झुण्ड सड़कें
लीलने वाली है आदिम संस्कृति
चगलने वाली है पुरातन परंपरा
चूस लेगी प्राचीन सभ्यता

सहम रहा है महुआ
डर रहा है साल सागौन
घबरा रहा है बीजा और तेंदू
कैसे बचेंगे अब
ददरिया की तान
करमा की ताल
माढ़ में सुरहुल
बासी, कांदा और
अनगिनत गीत

-एमन दास मानिकपुरी
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का हो ही

हुंकराय भुंकराय ले का होही
गजब  मेछराय  ले  का  होही



चाल  चलन  म किरा परे  हे
चेहरा चमकाय ले का होही


उंकर आंखी म सबो दिखत हे
तोर  लुकाय  ले  का  होही


मरनी के बेरा म करनी दिखथे
तब  पछताय  ले  का  होही


बिन मिहनत मिठाय नहीं कौरा
फोकट  अटियाय  ले  का होही


लच्छू ठेला म पगुरावत बैठे रा
कमाय  नै कमाय  ले का होही


कतको  कमाबे  पुर नै आवे
तोर जोरे बचाय ले का होही


मन मैलाहा निठुर चोला म
कातिक नहाय ले का होही


करिया नजर के आंखी करिया
काजर  अंजाय  ले  का  होही


करम धरम म जनम अलगागे
जीनगी अलगाय ले का होही


हरहा मरहा हमला तय जाने
अब जाने जनाय ले का होही


लकठा म आके बोले न बताए
दूरिहा से बलाय ले का होही


उलझे उलझाय लेथे जवारा
अब के तरसाय ले का होही


कोठा कुरिया खेतीखार नै झांके
जुच्छा हाथ हलाय ले का होही


— एमन दास मानिकपुरी
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रविवार, 15 दिसंबर 2019

गीत

अमरैया म माते हे चिरैया
लोर गे हे आमा के डारा
संगवारी रे
बुले ल आबे मोर पारा

कैना लाहो लेथे तोर नैना 
मन ला बांधे बोली बैना
सवरेगी रे
काबर ले डारे मोर चैना 

कारी कोइली केे कुहकी  राजा मोर,
कुहक मारे बन में।
मोर माथा के लाली बन जा, 
राखे हव तोला मन में। 
हाय हिरदे के हीरा मोर 
तरसत जीव के आधारा 
संगवारी रे 
बुले ल आबे मोर पारा 
 


नरवा के तीरेच म
सुवा बैठे रथे जोरे पांखी
जौन देखे रतिया जथे
अइसे मंदमतौना आंखी
पानी पिरित चढ़े उतारा

मौहारी भाठा हे
डोंगरी के ओप्पार में
महक मारे मयारू
आ जबे खार खार में
सुरबैहा रे

— एमन दास मानिकपुरी
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सोमवार, 9 दिसंबर 2019

अउ जनम कहां पाबे मोर संग म हो

इही जनम म दंव ले ते राजा मोला
अउ जनम कहां पाबे मोर संग म हो

दियना बारे फरिका उघारे
आंखी डारे रसता जोहत रइथव
होगे हस बिरान नइ देवस धियान
पी पीके आंसु रोवत रइथव
डेहरी म हिरक के नै झांके राजा मोला
अउ जनम कहां पाबे मोर संग म हो

अवरी राज के मे कुलवंती
तेकरे सेती अतका सइथव
बरे बिहइ के बात ​बानी
नइ धरे मन म तबले कइथव
खरखा गोबर सहीं रौंदे ते राजा मोला,
अउ जनम कहां पाबे मोर संग म हो

—एमन दास मानिकपुरी
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तोर बिना अकेली

प्यासी रे उमरिया
कोनो संग न सहेली
तरस तरस मर जाहूं
तोर बिना अकेली

सुन्ना हे डगरिया, हाय रे सांवरिया
कैसे के आवव, मे तोर न​गरिया
छेके अरकट्टा
करे ठट्ठा बरपेली
तरस तरस मर जाहूं
तोर बिना अकेली

तिरिया के पिरिया, जुलमी नजरिया
मीठ मीठ मया के, फांस लेथे किरिया
घाट घठौंदा खिंचे
हांथ हथेली
तरस तरस मर जाहूं
तोर बिना अकेली

—एमन दास









रविवार, 8 दिसंबर 2019

पूसमासी भोर

चिकने लंबे पतले कौहे की डाली
कोसा किड़ा ने वहीं घर बना ली

खेतो में खट्टे मीठे बेर पक रहे
बदमाश गिल्हरी खा—खा छक रहे

गुनगुने धुप की चादर मखमली
ठंडी हवाओं में हर्षित हर कली

बून्द बून्द मधुरस मजे से टपकी
झूंड झूंड हिरणी लजा के चौंकी 

दूर पहाड़ो में बिखरी सूरज की लाली 
ये किसने माथे पे बिंदिया लगा ली 

खेतों में महकी धनिया की खेती 
मेंड़ो में अरहर मधुर मुस्कान देती 

साफ छलछल पानी की बहती धारें 
सरसों चने गेहूं की लंबी लंबी कतारें

मतवारी बंजर में छाई हरियाली 
बहकी बहकी सी लगे पुरवाही 

कंटिली झाड़ी में भी सुन्दरता छाई
ओस की बूंदो ने  उसे गजब सजाई

मदमाती रंगरूप नदी ताल तलैया 
मोहे डोंगर की आभा लेती बलैया 

ललचाया मन बहुत बनके चकोर 
मर मर जाऊं तो पे पूसमासी भोर 

-एमन दास 



शनिवार, 7 दिसंबर 2019

मां की कोख से

चेतू तीर चलाना कब सीखा
उसे नहीं पता
शायद मां की कोख से
सीखा है अचूक निशाना लगाना

उंचे उंचे पेड़ों पर चड़ना
महुवे से पेट भरना
भूख को चिड़हाना
दर्द को आंखे दिखाना

सब कुछ खोकर भी
मुस्कुराने का हुनर
चेतू ने सीखा है
शायद मां की कोख से

कंटीली झाड़ियों को
नंगे पांव रौंदकर चलना
पथरीली पगडंडियों पर
सरपट दौड़ना

कदम कदम बीहड़ को नापना
पहाड़ों से डोंगर को झांकना
सीखा है चेतू
अपनी मां की कोख से

—एमन दास

बन्दूक की नोंक पर

बीहड़ में
​बन्दूक की नोंक पर जीते लोग
महुवा पीते है मजबूरी में
पेट भरने को अब बचा ही क्या है
बन्दूक की नोंक पर

उंची उंची साल की टहनियां
देखने में अच्छी लगती है
तेन्दू के चरमराते पत्ते
अब थोड़े दिनों का पेट पालती है
बन्दूक की नोंक पर

प्रपातों से गिरती धारें अब
रमनीय नहीं लगती
उंचे पहाड़ों से डोंगर को झांकना
अब नहीं भाता
बन्दूक की नोंक पर

शायद मैं प्यार करना भुल रहा हूं
क्योंकि मेरी अभिव्यक्ति
जी रही है जंगल में
घीसटती पगडंडियों पर
रेंग रही है अतहाशा
बंदूक की ​नोंक पर

घने जंगल में घोटूल विरान है
चेतू और पुन्नी मिले थे यहीं
निर्भिक बीहड़ में गुंजती थी
कभी मांदर की थाप
झांझ की झनकार
और गेड़ी की टाप

मैं खूद को वहीं खड़ा पता हूं
जहां अब सन्नाटे है
जहां पुन्नी को उठाकर ले गए
और थमा दी उसके हाथों में
एक बन्दूक
बन्दूक की नोंक पर

चेतू अब भी गाना चाहता है
दर्द का ददरिया
उल्लास का करमा
लेकिन सहम जाता है
बन्दूक की नोंक पर

—एमन दास
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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

रंग बहुत सारे

आओ अब न उलझाओ पीया

जनम जनम की प्यासी नैना
पलकन घुंघटा उठाओ पीया

कहीं बित न जाए ये  रैना
नेह की सेज सजाओ पीया

दरस परत झांप ले मुझको
मेरी चुनर ऐसी रंगाओ पीया

स्वांस स्वांस में आशा तेरी
अपना मुझे बनाओ पीया

बैरी बहुत ये बछर उमरिया
धीरे उंगली दबाओ पीया

लाज लहर  पी पी छकी हूं
प्रेम प्याला पीलाओ पीया

मैं अभागन हुई हूं सुहागन
संग अपने ले जाओ पीया

सुध सुरत टारे नहीं टरते
जल्दी बांह लगाओ पीया

भाते नहीं अब रंग बहुंत सारे
मुझे अपने रंग रंगाओ पीया

-एमन दास
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कलमनाद

ऐ कलम की तुक
तू खामोश मत होना
नयी नवेली पगलायी
परंपरा को मत ढोना

रचना, पूरखों की प्रखरता
गढ़ना, गीत गाँव के लिए
जल जंगल और  जमीन
लड़ना तू भी छांव के लिए

तेरे शब्द और हलन्त
अरण में बिखरी पड़ी है
जोतने हल लाल लाल
अनगिनत आंखे गड़ी है

तू पाट देना नींव सब
अवैध गहरी खनन को
और रोक देना कागज पे
स्वयं के हरन हनन को

देखना मौहा टपक कर
कहीं बिखरने न पाये
तेंदू के सूखे पत्ते वहीं
पड़े पड़े टूटने न पाये

तू जतन लेना कांदे और
लाख की बीजों को
मत देना कटने कहीं भी
अपनी सी चीजों को

करुण दर्द कौशल का
दिल्ली को बताना
बस्तर के बिहड़ में
फिर से घोटूल सजाना

तू गूण्डाधूर की वीरकथन
सतत लिखते रहना
जुझते माढ़ की पीरवरन
माटी पे मिटते रहना

-एमन दास मानिकपुरी
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गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

हिन्दी—छत्तीसगढ़ी गलबैहां

फटे सने कपड़े से
बदन को छुपाता
पैरों पर गिरता,
फिर गिड़गिड़ाता।

मोर जिनगी ल,
गिरवी रख ले साहेब!

फेर एक​ठिन नौकरी दे दे
मैं खोरवा लुलवा घिलर के
तोर दुवारी तक आय हव
दाई ल बिसवास देवाय हव

बिन बाप के मोला
वोहा लटपट म पाले हे
दु:ख पीरा ल साहत
सरी जिनगी ल घाले हे

गरीबी सन लड़त मरत
अब वोहा तो बुड़हा गे
ओकर मुढ़ी के बोझा
मोर मुढ़ी म कुड़हा गे

मोर ​बीमार दाई के
इलाज कोन करही
मोर जवान बहिनी के
बिहाव कोन करही

घर कुरिया के ठिकाना नैहे
बरतन भाड़ा बेचागे
घेरी बेरी के अवइ जवइ
कागज पाथा म सिरागे

अ ब्ब बे, साहब के
गोड़ ल छोड़
वरदीधारी के ललकार
साहेब के पहरेदार

क्या तमाशा लगाए हो
चलो जाओ यहां से
रक्षक बनी भक्षक
बंगले के बाहर पटका

उसका फटाहाल देख
किसी ने दान दिया फेक
निराश मन में आश जागा
भुखा था खाने को भागा





कोई नहीं सहारा,
दुखियारा
फिर हारा,
बेचारा







सोमवार, 2 दिसंबर 2019

कबीर की धुन में झुमता गाता थिरकता पनिका समाज

मानिकपुरी पनिका समाज का इतिहास अत्यंत समृद्ध एवं गौरवशाली है। सत्य स्वरूपी कबीर, कबीर स्वरूपी वंशगुरूओं का आशीर्वाद और महान कबीरपंथ की अध्यात्मिक धुरी पर टिका यह समाज अपने ऐतिहासिक सफर में सिर्फ और सिर्फ कबीरमय रहा है। कबीरमय संस्कृति, कबीरमय परंपरा, कबीरमय रहनी-गहनी कबीरमय खान-पान इत्यादि इत्यादि। कबीर का सिद्धांत मानिकपुरी समाज के रग—रग में लहू की तरह समाहित है। मानिकपुरी समाज संसार के कोने—कोने में फैला अपनी विरासत की अनमोल आकुल ​छवियों को जीवन की असल जीवटता बनकर फैला रहा है। शहरो में नौकरी कहीं व्यपार करता कहीं कहीं चाकरी करता, गांवों में खेती करता थिरकता कबीर की धुन में झुमता गाता अपनी मंजिल की ओर आगे बढ़ रहा है। समाजिक जिजिविशा को अपने भीतर समेटे सहजता को अंतर्निहित कर कबीरपंथ की बांह थामें अपने स्वर्णिम पल को उजागर कर रहा है। कबीर की भीतर तक उतरने वाली वाणी के सहारे पग—पग बड़ रहा है। पनिका समाज की औचित्य कबीर से प्रारंभ होकर कबीर तक जाती है और से मिलकर कबीर में ही समाती है।झुकती है तो कबीर के लिए ठहरती है तो कबीर के लिए चलती है तो कबीर के लिए गिरती है तो कबीर के लिए कबीर से चलकर कबीर तक पहुंचना इसकी ध्येय है।
किंतु समाज की इस सुसांस्कृतिक अलौकिकता समय के साथ साथ शनै—शनै लोलुप होती प्रतीत हो रही है। लोकलाज विछोही आधुनिकता ने हमारे अमूल्य निधि सुसंस्कार को हमसे छिनने का प्रयास किया है। पूर्वजों की अखंड धरोहर को तार—तार करने की कोशिश की है। हमारी अस्मिता और स्वाभिमान को गटकने की चेष्टा किया है। मानिकपुरी समाज कभी पोखर की तरह ठहरा नहीं अपितु नदी की तरह सतत् गतिमान रहा है। कबीर के पीछे चला ही नहीं अपितु भागा है दौड़ा है और ऐसा उभरा की कबीरपन ही इसका परिचय बन गया। 
वर्तमान में इस समाज के वि​कास और उन्न्यन के लिए विभिन्न स्तरों पर समाजिक संगठन कार्य कर रहे हैं। उनकी स​क्रियता और विभिन्न समाजिक आयोजन समाज के प्रति जागरूकता का परिचायक है। किंतु क्या समाज के विकास के लिए सिर्फ समाजिक पदाधिकारियों का क्रिया​शील होना भर काफी है, क्या आम स्वजातियगणों का कोई दायित्व नहीं बनता? ये प्रश्न कौंधता है क्योंकि पूंजीगत समाजवादिता आमजनों के ​हृदयपटल पर हावी हो रही है जो कि किसी भी समाज के विकास के लिए बड़ी बाधा है। किसी भी समाज का विकास उसकी सभ्यता पर टिका होता है। कबीरत्व मानिकपुरी समाज की गहन विशेषता रही है और इसके पहिचान की पहली शर्त भी।
कबीर साहेब, मानिकपुरी का साध्य और कबीरपंथ पावन साधन रहा है-
एक साधे सब सधे,
सब साधे सब जाय! ।कबीर।।
कबीर की महत्ता अपरिमेय है जिसे हमारे पूर्वजों ने बड़े सम्मान और गौरव के साथ पनिका समाज का परिचायक बनाया और हृदय से अपनाया है । वर्तमान में दिगर समाज की देखा देखी टुटपुंजिया संस्कृति और अनदेखनी हिमाकत ने मानिकपुरी समाज के बहुमूल्य रीति को धूमिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। जहाँ एक ओर कबीरपंथ की आध्यात्मिक ग्रंथ पनिका की पावनता को पुरजोश के साथ कबीर साहेब के साथ जोड़कर सामने लाती है वहीं तथाकथित पनिका इस समाज में जन्म लेकर पनिका से संबोधित तो होते हैं लेकिन क्या पनिका का असल परियाय बनने के काबिल हैं, क्या पनिका महज एक जाति समुदाय भर है? नहीं मेरे भाई पनिका कबीर साहेब की वो महान विरासत है जिसके बारे में जानने समझने के लिए पहले कबीर को जानना झमझना होगा।
आज जब मैं स्वयं इस दिशा में तनिक विचार भर करता हूँ तो मन भीतर से विचलित होने लगता है क्या थे पनिका और क्या हो रहे  हैं-
अवगुण कहूं शराब का, ज्ञान वान सुन लेय।
मानुष से पशुआ करे, ये द्रव्य गांठ का लेय।। ।कबीर।।
हम किसी और को नहीं कहते किंतु अपने और अपने परिवार को इस अंधकार में जाने से रोक सकते हैं आज चारो तरफ शराब और मांस की कूसंस्कृति का बोल बाला पुरजोर तरिके से बढ़ रहा है। हमें अपने समाज को इस गर्त में जाने से रोकना होगा। 
कबीर को पढ़ना कबीर को समझना आज हर किसी की प्राथमिकता होनी चहिए, आज का परिवेश फैशन का परिवेश है जिसमें शराब और मांस तथाकथित बड़े लोगों की शोभा और कृति का सुलभ साधन बनता जा रहा है।

अंकुर भखे सो मानवा, मांस भखे सो स्वान।
जीव बधे सो काल है, प्रत्यक्ष राक्षस जान।। ।कबीर।।
कबीर साहेब ने अपनी वाणी से हमें जीवन जीने का सहीं रास्ता दिखा गए हैं जरुरत है तो उस ओर निहारने की और आगे बढ़ने की!  बिगड़ने के लिए क्षण भर बहुंत है किंतु संभलने के लिए जनम बित जाता है अब न समझे तो कब!
अकेला स्वयं भर को संभाल कर स्वयं भर के विकास से पूरे समाज को विकसित कर सकते हैं।

- एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'
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