शनिवार, 7 दिसंबर 2019

बन्दूक की नोंक पर

बीहड़ में
​बन्दूक की नोंक पर जीते लोग
महुवा पीते है मजबूरी में
पेट भरने को अब बचा ही क्या है
बन्दूक की नोंक पर

उंची उंची साल की टहनियां
देखने में अच्छी लगती है
तेन्दू के चरमराते पत्ते
अब थोड़े दिनों का पेट पालती है
बन्दूक की नोंक पर

प्रपातों से गिरती धारें अब
रमनीय नहीं लगती
उंचे पहाड़ों से डोंगर को झांकना
अब नहीं भाता
बन्दूक की नोंक पर

शायद मैं प्यार करना भुल रहा हूं
क्योंकि मेरी अभिव्यक्ति
जी रही है जंगल में
घीसटती पगडंडियों पर
रेंग रही है अतहाशा
बंदूक की ​नोंक पर

घने जंगल में घोटूल विरान है
चेतू और पुन्नी मिले थे यहीं
निर्भिक बीहड़ में गुंजती थी
कभी मांदर की थाप
झांझ की झनकार
और गेड़ी की टाप

मैं खूद को वहीं खड़ा पता हूं
जहां अब सन्नाटे है
जहां पुन्नी को उठाकर ले गए
और थमा दी उसके हाथों में
एक बन्दूक
बन्दूक की नोंक पर

चेतू अब भी गाना चाहता है
दर्द का ददरिया
उल्लास का करमा
लेकिन सहम जाता है
बन्दूक की नोंक पर

—एमन दास
anjorcg.blogspot.com




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