गुरुवार, 28 नवंबर 2019

भाखा

गोठियाथौं त अंतस म,
बगर जथे भाखा।
संगवारी सहीं मन ल
टमर जथे भाखा।

दाई के कोरा अऊ
ददा के दुलार म।
मया बन पलपला के
ओगर जथे भाखा।

डोकरी दाई के थपकी
सहीं मोला लुलवारथे
बबा के खंधैया कस
मचल जथे भाखा।

बखरी बारी सहीं
बिक्कट सुख देथे।
नार सहीं करेजा म
छछल जथे भाखा।

मोर आँसू ल पोछथे
अपन अंचरा म।
मोर पीरा देख बगियाके
ऊमड़ जथे भाखा।

-एमन दास
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मंगलवार, 26 नवंबर 2019

विकास नाम की 'सुरसा'

विकास नाम की सुरसा
लील रही है संस्कृति
चगल रही है परंपरा
गटक रही जीवनज्योति

पूंजीवादी रागरहितता
अक्षौहिणि सेना जिनके
अकिंचिन घरौंदे हारी
नन्हें सुख के तिनके

आधुनिकता की बिहड़
में दहाड़ती कौंध रही
रमणीय दारूण सौंदर्यता
पग पग में रौंद रही


शांत शीतल हरीतिमा
सांप्रतिक युग में कहां
निरखता और आकुलता 
भौतिक सुख में कहां

—एमन दास मानिकपुरी

ऐ 'जय स्तम्भ'

कलेचुप!
रायपुर के छाती म ठाढ़े,
अत्तेक भीड़ म
ते का सोचत हस?

तोला सबो चिनथे
फेर तोर आन बान शान
बलीदान अउ स्वा​भिमान
ल कोन जानथे?

अनजान सहीं कतको
रेंग देथे तोर तीर ले,
गरब अउ अस्मिता के गोठ
ते कब गोठियाबे?

माटी बर छलकत लहू
स्वाभिमान बर बगियाये आंखी
बज्जर बीर के बीरता
ते देखे हस!

कतका पबरित हस ते
अउ पावन हे तोर इतिहास
बड़ जोर के सुरता ल 
समोख राखे हस अपन थाती म

—एमन दास मानिकपुरी


गुरुवार, 21 नवंबर 2019

हे बस्तर, प्यारे बस्तर! -एमन दास मानिकपुरी


तेरी धुन और लय से ही,
मेरी कविता लहलहाती है।
स्वासों की सब सरगम भी,
कारण्य स्तुति गाती है।


नित नूतन नव रूप लिये,
घनघोर गहन कुछ बोल रहा।
हो आतुर नभ धरा मिलन को,
मानो भव भेद खोल रहा।



दूर शिखर से झरझर करती,
झरने धरती को चुम रही।
आती बलखाती कलकल करती,
नदिया हर्षित हो झुम रही।



राग विराग की आकुल छबियां,
भूनिधि बस्तर की घराने में।
कहीं उंचे उंचे सरई सुहाने,
कहीं खड़ा पहाड़ विराने में।



कहीं गेड़ी की टंकार गुंजती,
कहीं मांदर की तरूण थाप।
कहीं घोटूल की माढ़ अबूझी,
कहीं घाटी घनी पूणप्रताप।



जहाँ अंतरद्वंद की तिमिर ताप,
चेलिक थिरकन से कांप रहा।
जहां चौंक कर व्याकुलता भी, 
निज मनुज कर्म को भांप रहा। 

हे धीर गंभीर महातपस्वीनी,
दण्डक भुइंया तुम्हें प्रणाम।
हे प्रयाणी महा बलिदानी,
हे परम सुहावनी हे कानन। 


-एमन दास मानिकपुरी 
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बुधवार, 20 नवंबर 2019

'रंगरेली' गीतकार -एमन दास मानिकपुरी

'रंगरेली'

लपकत हे चाल तोर,
लचकत  हे  कनिहा।
होवथे बवाल गोरी,
ते काबर आय पनिया।

गजब हालै डोलै बैहा,
तोर बेनी झुलै झूलना।
खनखन चुरी बाजे,
जियलेवा होगे कंगना।

फकफक ले गोरी के,
चकचक ले हे गोदना।
कोन भागमानी बर,
बदे हवस ते बदना।

जौंजर मोटियारी के,
जबर जौंहर जवानी।
कुंदरू कस होठ हे,
चुरपुर गुरतुर बानी।

आंखी गढ़ौना गत,
नैना हवय कटारी।
रसरसहा रूप रंग,
हिरदे म चले आरी।

दूरिहा ले देखे म,
धक धक ले करथे।
लकठा म आये ले,
चट चट ले जरथे।

आस धरे हिरदे के,
सइता ल डोलाथे।
ओतको म लजा के,
मइनता ल भरमाथे।

गीतकार-
एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'
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चढ़ती जवानी
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गजब मोहे टूरी तोर चढ़ती जवानी
बुढ़वा जवान के होगे पानी पानी

बिहनिया भरमना मंझनिया मनमानी
संझा लहुरे लहर रतिहा बदनामी

ऐसन कोन भाही बिपत के खानी
कुकुर गती होही काय के हैरानी

अंतस म आंसू तोर बाहिर मुस्कानी
घर के खेती परोसी के सियानी

जियलेवा रूप रंग कुंदरू कस चानी
देखे ले हाय राम जरय जिनगानी

परबुधिया बात जौने हा पतियानी
बिलहोरे संसो म पीटे परवा छानी

अलकरहा लिख डारेव अटपटहा बानी
सुरमिलहा कोनो कवि तौने चिनहे जानी

खपचलहा जिनगी होगे करू कानी
काया अइलागे माया मुटका मिठानी

अपने नै संभले दुसर काबर पीबो मानी
चेत चढ़े तभे तरे सुनौ पनिका के जुबानी

गीतांश
एमन दास मानिकपुरी
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गजल
(रचना दिनांक 03-09-2011)

कोई अपनी जिन्दगी, गजल किये बैठे हैं।
जाम -ए-मुहब्बत,  मुददत से पिए बैठे हैं।।

गर किनारा  मिले तो,  साहिल से  कहना।
मुसाफिर कोई बरसों से, कश्ती लिए बैठे हैं।।

ये सफर-ए-इश्क का, अंदाज-ए-बयाँ सुनो।
वो भूल गए जिनकी, यादो में जिए बैठे हैं।।

लाख  मन्नतो पर भी, वो दिल  दे न पाये।
बिन मांगे  कोई यहाँ, जान  दिए  बैठे हैं।।

उस रात  चाँद  की,  रौशनी  क्या  पढ़ी।
बहार-ए-चमन  में,  गुल  खिले  बैठे  हैं।।

-एमन दास मानिकपुरी
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राग रंग 'सोहर' द्वारा - एमन दास

'सोहर'
बिना तेल बिना बाती,
जरत हव दिन राती,
मन हे मोर उदासी हो!
सुवना बैरी रे उमरिया बदमाश,
के बछर दिन चार हो!

कब आही रे लेनहार,
हिरदे हवय अंधियार,
सुन्ना अंगना घर द्वार हो!
सुवना बैरी रे उमरिया बदमाश,
के बछर दिन चार हो!

धनी बसे मोर दूरिहा,
ननपन के किरिया,
तिरिया के पिरिया हो!
सुवना बैरी रे उमरिया बदमाश,
के बछर दिन चार हो!

गीतकार-
एमन दास मानिकपुरी 
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सोमवार, 18 नवंबर 2019

लाख कोशिशें करूं तुक तोड़ने की मगर,
मेरी कलम की तुक वही बोलती है।
मैं शहर शहर चिल्लाता डोलता हूं,
मेरी कलम गाँव गाँव बोलती है।।
-एमन दास
anjorcg.blogspot.com
मेरी कलम खामोश हो जाएगी,
मेरे बोल जिंदा रहेंगे।
मैं फिकर क्यों करूं जनाब,
ये भूगोल जिंदा रहेंगे।।

रास्ते बहुत है चलने को मगर,
हम वहीं जाएंगे जहां हमराही हो।
मैं कलम हूँ उस दिशा चलुंगा ,
जहां मेरा पन्ना और मेरा स्याही हो।।

किसी के सहारे कि क्या गरज,
मुझे संस्कृति का साथ मिल गया।
इस परंपरा के गाढ़े रिश्तों से,
बंजर में भी फूल खिल गया।।

मेरी सांसों की हर एक सफर,
तेरे नाम करके जाउंगा।
कुछ ऐसा लिखकर जाउंगा,
कुछ काम करके जाउंगा।।

गीतकार-
एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'
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महिला कमाण्डो

सावधान— महिला कमाण्डो आ रही है,,,

ते कहां जाबे दरूहा,
हमर ले बोचक के।
ए दैसे हुदर देहूं,
तोला कोचक के।

बेरा कुबेरा पी खा के,
कहूं बस्ती म ते आबे।
डउकी लइका ल तंग करबे,
लउठी बेड़गा उठाबे।
झगड़ा कहूं मताबे त,
ठठाबो नंगत के
ते कहां जाबे दरूहा,
हमर ले बोचक के।

रात दिन तो उही धंधा,
संझा सुंघत जाथस।
ढक्कन ढाबा खोल के,
उत्ता धूर्रा डरकाथस।
अबके कहूं सपड़ाए त,
रख देबो कुचर के,
ते कहां जाबे दरूहा,
हमर ले बोचक के।

गीतकार—
एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'
ग्राम व पोस्ट— औंरी,
तहसील— पाटन
जिला— दुर्ग, छ.ग.

हो रे मास, अघहन मास!

हो रे मास, 
अघहन मास!

जाड़ धर के आथस,
बिकट सोर मचाथस।
कोइ ल चुलकाथस,
कोइ ल कुलकाथस। 

महर महर धनिया,
महके खार—खार म।
सरर सरर पुरवइया,
डोंगरी पहार म।

जुड़ जुड़ नरवा तरिया,
हाथ गोड़ ठुनठुनी धरे।
जुड़ जुड़ कोठा कुरिया,
लंघियावत बस्ती सोवा परे।

मुंह डहर भगभग ले,
कुहरा ओगरत हे।
येदे चटकत हे गाल,
अउ होठ ओदरत हे।

गरम गरम फरा,
अउ चाउंर के चीला।
बंगाला के चटनी,
झड़कत हे मइपिला।

दूरिहा ले रेंग गोइ,
झन जोर तय बैंहा।
जुड़ेच जुड़ लागे,
रूख—रइ के छैंहा।

लजा के चंदा
चंदैनी खुसरत हे
जुड़ जड़काला म
सूरूज ठुठरत हे

गीतकार—
एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'
ग्राम व पोस्ट— औंरी,
तहसील— पाटन
जिला— दुर्ग, छ.ग.



















‘‘धान’’

‘‘धान’’
धान ह लुवा गे,
भारा ह बंधा गे।
बड़े बिहनिया ले,
गाड़ा ह फंदा गे।

बियारा म आ गे,
खरही ह गंजा गे।
दौरी ह गिंजरा गे,
धान ह मिंजा गे।

ओसा गे धूंका गे,
रास ह बंधा गे।
बिजहा बर अलगा गे,
कोठी म धरा गे।

गाड़ी म जोरा गे।
सोसायटी म उलदा गे,
करजा ह छूटा गे,
खुशहाली ह छा गे।



गीतकार—
एमन दास मानिकपुरी 'अंजोर'
ग्राम व पोस्ट-औंरी,
तहसील- पाटन,
जिला-दुर्ग, छत्तीसगढ़

































सोमवार, 11 नवंबर 2019

अरकट्टा

दुनिया दुख के मेला रे मोर भाई
पल छिन बिकट झमेला!

धन दोगानी खटिया गोरसी,
जियत भर के साथी।
चोंगी माखुर म बितगे जिनगी,
टोटा म लग गे फांसी।
बीता बर पेट के ख़ातिर,
गजब फिरेव सुछेल्ला रे मोर भाई
पल छिन,,,,,

तिनका जोर महल बनाएंव,
जोरेव पथरा ढेला।
स्वारथ के सूली म चढ़के,
खोजेव सुख के ठेला।
आंखी मुंदे रेंगेव रसता,
बैहा बरोबर अकेल्ला रे मोर भाई
पल छिन,,,,,

जांगर के राहत भर ले,
खूब उड़ाएव गुलछर्रा।
छाती उपर पीरा चढ़गे,
सब धुकय सुपा पर्रा।
तन पिंजरा के मैना उड़ागे,
जाने कहाँ सनकेरहा रे मोर भाई
पल छिन,,,,,

लेखा जोखा ये जिनगी के,
अतके मोर किताब।
सब खैता होना हे एक दिन,
काला रखव हिसाब।
माटी के काया माटी होही
लगे हे रेलम पेला रे मोर भाई
पल छिन,,,,,

गीतकार-एमन दास मानिकपुरी
मो-7828953811